पत्थर की है दुनियाँ जज़्बात नही समझती
दिल मे क्या है वो बात नही समझती
तन्हा तो चाँद भी है सितारो के बीच
मगर चाँद का दर्द बेवफा रात नही समझती
हम दर्द झेलने से नही डरते
पर उस दर्द के खत्म होने की कोई आस तो हो
दर्द चाहे कितना भी दर्दनाक हो
पर दर्द देने वाले को उसका एहसास तो हो
उनको अपने हाल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे गलत थे हम जवाब क्या देते
वो तो लफ्ज़ो की हिफाज़त भी ना कर सके
फिर उनके हाथ मे ज़िन्दगी की पुरी किताब क्या देते
Saturday, May 8, 2010
हम जवाब क्या देते...?
ये और बात है
ये और बात है हम तुमको याद आ ना सके
शराब पी के भी हम तुमको भुला ना सके
ये फासलो की है बसती इसी लिये यारो
वो पास आ ना सके हम भी पास जा ना सके
सुकु दिया है ज़माने को मेरे नगमो ने
अज़ीब बात है खुद को ही हम हसा ना सके
ये और बात है
ये और बात है हम तुमको याद आ ना सके
शराब पी के भी हम तुमको भुला ना सके
ये फासलो की है बसती इसी लिये यारो
वो पास आ ना सके हम भी पास जा ना सके
सुकु दिया है ज़माने को मेरे नगमो ने
अज़ीब बात है खुद को ही हम हसा ना सके
मै खुद को फरिश्ता नही कहता
दरिया तो है वो, जिस से किनारे छलक उठाये
बहते हुए पानी को मै दरिया नही कहता
गहराई जो दी तुने मेरे ज़ख्म ए जिगर को
मै इतना समुंद्र को भी गहरा नही कहता
किस किस की तम्मना मे करू प्यार को तक़सीम
हर शक़स को मै जान ए तम्मना नही कहता
करता हूँ मै, अपने गुनाहो पे बहुत नाज़
इंसान हूँ मै खुद को फरिश्ता नही कहता
रस्म-ए-वफा
दर्द-ए-दिल की कहानी भी वो खुब लिखता है
कही पर बेवफा तो कही मुझे मेहबूब लिखता है
कुछ तो रस्म-ए-वफा निभा रहा है वो
हर एक सफ-ए-कहानी मे वो मुझे मजमून लिखता है
लफ्ज़ो की जुस्तजू मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है
स्याही मेरे अश्क़ को बनाकर वो हर लम्हा लिखता है
कशिश क्यो ना हो उसकी दास्तान-ए-दर्द मे यारो
जब भी ज़िक्र खुद का आता है वो खुद को वफा लिखता है
तहरीरे झूठ की सजाई है आज उसने अपने चेहरे पर
खुद को दर्द की मिसाल और कही मजबूर लिखता है
